क्या था शीत युद्ध ? और क्यों हुआ था..? शीत युद्ध (cold war ) के सिद्धांत, कारण, परिणाम एवं महाशक्ति दैतांत।पूरी विवेचना।(अंतरराष्ट्रीय मुद्दे-"करंट-फ्रट" - प्रेरणा डायरी ब्लॉग में ) "शीत युद्ध की पूरी कहानी -- प्रेरणा डायरी की जुबानी"
Tudawali, rajasthan - 321610
"शीत युद्ध की पूरी कहानी -- प्रेरणा डायरी की जुबानी"
क्या था शीत युद्ध..? और क्यों हुआ था..? शीत युद्ध के सिद्धांत,कारण, परिणाम, एवं महाशक्ति देत्तान्त ( शांति स्थापना ) की पूरी विवेचना।
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फोटो विश्लेषण - शीत युद्ध का दौर
दोस्तों नमस्कार, प्रेरणा डायरी कि आज की पोस्ट में आप सभी पाठकों का दिल से स्वागत है। यह एक बेहतरीन लेकिन ऐतिहासिक पोस्ट है। इस आर्टिकल में शीत युद्ध के हर कोने में जाने का प्रयास किया गया है। मैं यह कह सकता हूं कि इस पोस्ट को पढ़ने के बाद आपके मन में शीत युद्ध से संबंधित शायद ही कोई प्रश्न बच्चे।
दोस्तों अपने युद्ध के बारे में सुना होगा और हो सकता है आपने देख भी हो, लाइव नहीं पर टीवी और न्यूज़ में तो आपने देखे ही होंगें। युद्ध में अमूमन यह होता है कि नौसेना वायु सेवा और थल सीन मिलकर अपने अत्याधुनिक हथियारों के साथ एक दूसरे पर हमला करती है। टैंक टॉप मिसाइल बम लड़ाकू विमान पनडुब्बी जहाज हेलीकॉप्टर इन्हीं के दृश्य हमें लड़ते हुए गोली गोली डागते हुए, बम गिरते हुए नजर आते है, पर क्या कभी आपने ऐसे युद्ध के बारे में सुना है जिसमें ना एक भी मिसाइल चली ना कहीं कोई बम गिरा ना कहीं कोई लड़ाकू विमान ने उड़ान भरी और ना ही कोई सैनिक या आम नागरिक हटाहत हुआ हो। सुनकर बड़ा अजीब सा लगता है क्योंकि युद्ध का जो दृश्य हमारी आंखों के सामने उत्पन्न होता है, यह दृश्य उससे थोड़ा हटकर है। और यह दृश्य उसी युद्ध का है जिसे हम "शीत युद्ध अर्थात कोल्ड वॉर" के नाम से जानते हैं। शीत युद्ध से जुड़े हर पहलू को जानने का प्रयास हम आज के इस आर्टिकल में करेंगे। शीत युद्ध की परिभाषा, शीत युद्ध के कारण, इसके परिणाम, शीत युद्ध के दूसरे दोर और महाशक्ति देत्तान्त की पूरी, शीत युद्ध के दौरान शांति स्थापना के प्रयास , एवं शीत युद्ध के अंत और रूस के विभाजन, की पूरी व्याख्या और विवेचना करेंगे। प्रेरणा डायरी के आज के आर्टिकल को हम निम्न प्वाइंटों के तहत रीढ़ करेंगे ---
टेबल ऑफ़ कंटेंट ( www.prernadayari.com )
1. क्या था शीत युद्ध.. ( what is cold war )
2. शीत युद्ध को जन्म देने वाली परिस्थिति।
-- फुल्टन भाषण
-- अविश्वास
-- व्यक्तित्व टकराव
-- मार्शल योजना
-- वैचारिक मतभेद
3. शीत युद्ध के कारण।
-- ऐतिहासिक कारण।
-- विचारधाराओं में मतभेद।
-- पारस्परिक एवं अविश्वास एवं भय
-- राजनीतिक व्यवस्थाओं में अंतर
-- झूठा प्रचार
-- अंतर विरोध।
-- बर्लिन नकाबन्दी।
4. शीत युद्ध के प्रथम और द्वितीयSansodhan - प्रथम शीत युद्ध।
- द्वितीय शीत युद्ध।
- अमेरिका ने पाकिस्तान को महत्व दिया।
- शीत युद्ध और भारत।
- स्वयं रूस पर शीत युद्ध का क्या प्रभाव रहा..।
5. शीत युद्ध की याद दिलाती ऐतिहासिक तस्वीरें।
6. शीत युद्ध के सिद्धांत।
7. शीत युद्ध के अध्याय का अंत।
8. निष्कर्ष / मूल्यांकन
9. शीत युद्ध से संबंधित प्रश्न उत्तर।
1. क्या था शीत युद्ध - अर्थ
सशस्त्र शांति के नाम से जाने जाने वाला शीत युद्ध वह दौर था जब महा शक्तियों के बीच तीव्र शत्रुता और एक दूसरे को निर्बल बनाने की गहन होड़ चल पड़ी थी। यह वह दौर था जब महाशक्ति और उनके गुटों में शामिल सदस्य देशों के मध्य तीखा कूटनीतिक संघर्ष, कड़ी वैचारिक मतभेद, परिलक्षित होते थे। प्रत्यक्ष सैनिक कार्यवाही के अतिरिक्त इस दौर में हर तरह के वैचारिक युद्ध हुए। शीत युद्ध हथियारों की होड़ का दौर भी कहा जाता है। क्योंकि एक दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ में दोनों महाशक्तियों ने खतरनाक परमाणु हथियारों, बैलिस्टिक एवं सुपर सोनिक क्रूज मिसाइललों, लेजर बमों, रासायनिक हथियार और अंतर महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल के निर्माण में जमकर संसाधन, श्रम और पूंजी खफाई। संयुक्त राज्य अमेरिका तथा सोवियत रूस एवं उनके साथ ही सदस्य देशों के बीच जमकर कूटनीतिक और वैचारिक युद्ध चला, लेकिन शीत युद्ध के दौरान खुला सैनिक संघर्ष नहीं हुआ। शीत युद्ध के दौरान यह प्रमुख महा शक्तियों एक दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ जुटी रही,
शीत युद्ध दुनिया का एकमात्र ऐसा युद्ध है जो जमीन पर नहीं लड़ा गया, बल्कि यह कूटनीतिक, वैचारिक, सामरिक गुट बंदी, दबाव और खींचतान से भरा हुआ एक वैचारिक युद्ध था। शीत युद्ध सशस्त्र सैन्य युद्ध नहीं था। शीत युद्ध के दौरान पूरी दुनिया दो खेलों में बट गई थी। एक हेमा संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ तो दूसरा खेमा सोवियत रूस के साथ।
शीत युद्ध के साथी
शीत युद्ध को बढ़ावा देने वाली परिस्थितियों --
1. फुल्टन भाषण -
1946 को फल्टन अमेरिका में चर्चिल्ली ने अपने भाषण में कहा था की संपूर्ण यूरोप पर एक लोह आवरण छा गया है। इस भाषण के तहत चर्चिल्ली ने मित्र देशों को चेताया था कि स्टालिन के नेतृत्व में सोवियत शक्ति पश्चिमी प्रजातंत्र के लिए गंभीर चुनौती बन सकती है फतेह चर्चिल का मानना था कि अंतरराष्ट्रीय पटल पर संघर्ष का एक नया दौर शुरू हो चुका है।
दूसरी तरफ मास्को में भी भय व्याप्त तथा स्टालिन ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था एवं सैन्य शक्ति को अपने देश रूस के लिए खतरे के रूप में देखा।
2. पारस्परिक अविश्वास -
अमेरिका में सोवियत संघ के मध्य पारस्परिक एवं विश्वास की जड़े 1917 की बोल्शेविक क्रांति से जुड़ी हुई है जब अमेरिका ने इसके प्रति अपनी कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। प्रथम महायुद्ध के अंत के समय अमेरिकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने 10000 से अधिक अमेरिकी सैनिकों को सोवियत संघ की नई साम्यवादी शासन व्यवस्था को बलपूर्वक पलटने के लिए मित्र राष्ट्रओं की सेना की सहायता के लिए भेजा था। इस अभियान के असफल होने के बावजूद भी अमेरिका ने सोवियत संघ को राजनीतिक मान्यता देने के विचार को लंबे समय तक स्थगित रखा। 1933 में अमेरिका ने सोवियत संघ को कूटनीतिक मान्यता प्रदान की थी। द्वितीय महायुद्ध में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच साझेदारी का एकमात्र आधार जर्मनी के नाजी आक्रमण को सफल करना था नाजी आक्रमण के फल स्वरूप सोवियत संघ के 18 करोड लोग द्वितीय महायुद्ध में मारे गए, 70000 गांव नष्ट हुए एवं 128 बिलियन डॉलर की संपत्ति नष्ट हुई। ऐसी स्थिति में अमेरिकी राष्ट्रपति रोज बेल्ट ने सोवियत संघ को आर्थिक सहायता देना एवं अपने मित्र राष्ट्रों के हितों की साधना को ही उचित समझा। क्योंकि सोवियत संघ की सेवा की कुर्बानी आखिरकार अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों की लोकतांत्रिक मूल्यों और सामरीक़ हितों की रक्षा के लिए उपयुक्त थी। किंतु स्टालिन क्षतिपूर्ति की राशि को वसूल करने के पक्ष में थे जबकि जर्मनी की अर्थव्यवस्था इतनी चरमरा गई थी कि वो इस वृहद राशि को चुकाने में असमर्थ थी।
3. व्यक्तित्व टकराव --
अमेरिका के राष्ट्रपतियों रोज बेल्ट बेडरूम में तथा सोवियत संघ के नेता जोसेफ स्टालिन के बीच व्यक्तिगत टकराने शीत युद्ध को जारी रखने में अहम भूमिका निभाई। अमेरिका की नजर में स्टालिन रक्त पर पशु आक्रांत एवं उन्मादी प्रवृत्तियों की छवि वाले व्यक्ति थे। तो इसी तरह स्टालिन भी अमेरिका के नेताओं को कुख्यात सम्रवाद साम्राज्यवादी शोषण करता एवं धोखेबाजों की संज्ञा देते थे। महा शक्तियों के इन बड़े नेताओं के आपसी टकराव ने शीत युद्ध को अनिवार्य बना दिया।
4. मार्शल योजना --
कुछ इतिहासकार एवं विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिकी नीतियों में आर्थिक प्रयोजन महत्वपूर्ण था। आते मार्शल योजना इन उद्देश्यों की प्राप्ति में एक महत्वपूर्ण कड़ी थी। सोवियत संघ की दृष्टि में मार्शल योजना सोवियत संघ कि सम्यवादी व्यवस्था पर एक करारी चोट थी मार्शल योजना में सारी खोने के निमंत्रण को सोवियत संघ ने स्वीकार नहीं किया। क्योंकि सोवियत संघ का मानना था कि मार्शल योजना संयुक्त यूरोपीय कार्यक्रम का हिस्सा है। अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता की नीति को मानते हुए सोवियत संघ ने इस योजना में भाग नहीं लिया मार्शल योजना पश्चिमी व उत्तर पश्चिमी यूरोप के 17 देशों तक सीमित रही तथा यह योजना 1952 तक चली
5. वैचारिक मतभेद --
शीत युद्ध एक प्रकार से वैचारिक मतभेदों का युद्ध था। दोनों महा शक्तियों संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के नेताओं के विचारों में द्वंद था। इस कड़ी में अमेरिका का ट्रूमेन सिद्धांत एक प्रकार से विचारधारा युद्ध की घोषणा माना गया। अमेरिका तथा सोवियत संघ के राजनीतिक मूल्य, आर्थिक व्यवस्था, एवं ऐतिहासिक अनुभवों की दृष्टि से मतभेद इतने गहरे हो गए कि शीत युद्ध अटल हो गया था।
शीत युद्ध के कारण --
1. ऐतिहासिक कारण -
दोनों महा शक्तियों के ऐतिहासिक अनुभव कुछ इस तरह के रहे कि उनमें पारस्परिक संशय उप्पन हो गया। जैसे एक घटना का मैं जिक्र करता हूं कि द्वितीय महायुद्ध में अमेरिका एवं सोवियत संघ दोनों ही अचानक हमले का शिकार हुए थे। उसे समय की ऐतिहासिक घटनाओं ने अमेरिका और सोवियत संघ दोनों को ही यह निश्चय करने के लिए मजबूर कर दिया था कि वह भविष्य में कभी भी अपने आप को ऐसी स्थिति का शिकार नहीं होने देंगे। इसके अलावा 1946 में कनाडा में हुए जासूस मुकदमे ने एक संगठित सोवियत गुप्तचर व्यवस्था को उजागर किया जिसका उद्देश्य परमाणु बम के भेद जानना था। उधर दूसरी तरफ सोवियत की जनता और वहां के नेता भी वह दिन नहीं भूलते थे जब 1917 में मित्र देशों ने बोल्सविक क्रांति का विरोध किया था और जार को समर्थन दिया था। अतः हम यह कह सकते हैं कि शीत युद्ध को जन्म देने वाले प्रमुख कारणों में कुछ ऐतिहासिक कारण भी शामिल रहे हैं।
2. विचारधाराओं में द्वंद -
यह शीत युद्ध के कारणों में एक प्रमुख कारण है। शीत युद्ध की एक ठोस वजह कहीं जा सकती है कि दोनों महा शक्तियों की विचारधाराओ में टकराव का उत्पन्न होना। शीत युद्ध के दौरान दो महाशक्तियां थी, संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस। अमेरिका लोकतंत्र,पूंजीवाद, की विचारधाराओं का पोषक था, और इन्हें पूरी दुनिया के लिए हितकारी मानता था। दूसरी तरफ सोवियत संघ था, जो दुनिया की दूसरी महाशक्ति थी। सोवियत संघ साम्यवादी विचारधारा को मानता था। वह लोकतंत्र को दुनिया के लिए खतरा मानता था। साम्यवादी विचारधारा लोकतंत्र को एक भ्रांति मात्रा मानती थी तथा उनका मानना था कि लोकतंत्र अमीरों के हितों की पूर्ति का एक साधन मात्र है। और भी अनेक ऐसे मुद्दे रहते थे जो दोनों महा शक्तियों के मध्य वैचारिक द्वंद्व उत्पन्न करते रहते थे। अगर हम इसकी वजह ढूंढते हैं तो मेरी नजर में सबसे बड़ी वजह यही है कि दोनों महा शक्तियों की विचारधाराए अलग-अलग थी इसीलिए उनमें आपसी टकराव था। दोनों विचारधाराओ से जुड़ी महा शक्तियया पूरे विश्व में अपना प्रभुत्व कायम करना चाहती थी।
3. पारस्परिक अविश्वास और भय -
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ दो ही महाशक्तियां बची थी। धीरे-धीरे दोनों के मन में यह लालसा उत्पन्न हुई कि वह विश्व में अपने वर्चस्व को बढ़ाएं एवं बनाए रखे। उनके प्रयास इस कृत्य के लिए केंद्रित होने लगे। दोनों महा शक्तियों कि आँखों में विश्व पर राज करने का सपना था। दोनों ही महा शक्तियों थी, दोनों ही एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे अतः है इनमें धीरे-धीरे अविश्वास और भय का माहौल पनपा। उदाहरण के लिए अमेरिका सोवियत संघ के विस्तार को साम्यवाद की विजय के रूप में देखा था जो कि अमेरिका की राष्ट्रीय अखंडता एवं सुरक्षा को खतरे में डाल सकता था अक्टूबर 1962 में जब सोवियत मिसाइल और फौजी सोवियत संघ के मित्र देश क्वीबा में संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाफ आक्रामक एवं रक्षात्मक कार्यवाहियों के लिए दाखिल कर दी गई, तब सोवियत विस्तार को लेकर अमेरिकी भय व संका और गहन हो गई। क्यूबा संकट के दौरान शीत युद्ध अपने चरम पर था।
दूसरी ओर सोवियत संघ को हमेशा यह भाई लगा रहता था कि अमेरिका और पश्चिमी शक्तियों असाम्यवादी तत्वों के साथ मिलकर उनके खिलाफ संघर्ष छेड़ देंगे। और दुनिया से उसके निशान मिट जाएंगे इसलिए सोवियत रूस अमेरिका को लेकर हमेशा असंख्यित रहता था। अमेरिका भी हमेशा ऐसे ही भय और आशंकाओं से घिरा रहता था।
4. राजनीतिक व्यवस्थाओं में अंतर -
अमेरिका में सोवियत संघ को एक बंद समाज के रूप में देखा जाता था जिसकी संपूर्ण निर्णय प्रक्रिया गोपनीय रहती थी। जबकि सोवियत संघ में अमेरिका को एक अस्थाई साझेदारी के रूप में देखा जाता था जो उनके साथ हुए समझौता को लागू करने में अपने आप को असमर्थ समझता था। ऐसी संदेह जनक स्थिति में कभी अमेरिकी संसद समझौता की पुष्टि करने के लिए मना कर देती तो कभी अमेरिकी प्रशासन में बदलाव के कारण नीतियां बदल दी जाती। दोनों महा शक्तियों के वैचारिक मतभेदों के कारण उनकी सह अस्तित्व की सोच पर प्रश्न चिन्ह लग गया। सोवियत संघ की यह मान्यता थी कि पूंजीवाद निश्चित रूप से युद्ध को प्रेरित करता है।
5. झूंठा प्रचार -
जब दो महा शक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा का दौर होता ह तो ऐसी स्थिति झूठी प्रचारकों का बोलबाला बढ़ जाता है। फल स्वरुप शीत युद्ध के दौरान यह दोनों ही महा शक्तियों एक दूसरे के खिलाफ बिना सबूत के झूठे आरोप प्रत्यारोप करने लगी। एक दूसरे के खिलाफ एजेंसियां जमकर झूठा प्रचार करती थी। इस माहौल के फल स्वरुप शीत युद्ध को बढ़ावा मिला। सोवियत संघ के नेता पुरुष जीवन ने अमेरिका को खुले तौर पर धमकी दी थी कि "हम तुम्हें और पूँजीवाद दोनों को जमीन में गाढ़ देंगे"। हालांकि बाद में उनकी धमकी एक बड़ी सखी साबित हुई क्योंकि उन्हें के समय 1962 में क्यूबा संकट मामले पर सोवियत संघ को कब से अपनी मिसाइल को हटाना पड़ा था।
6. अंतर्विरोध -
सोवियत संघ और अमेरिका दोनों अंतर विरोध से ग्रसित थे। सोवियत संघ की निगाह में अमेरिका अपने आप को तब तक सुरक्षित महसूस नहीं कर सकता जब तक वह सोवियत संघ पर निर्णायक जीत को हासिल ने कर ले। अमेरिकी राजनीति में सोवियत विरोधी धारणा बड़ी सुदृढ़ थी। अमेरिका सोवियत संघ की राजनीति को संदेह की नजरों से देखा था। अमेरिका तो सोवियत संघ की व्यवस्था को एक बुराई की संज्ञा देता था। स्टालिन के बारे में अमेरिका के नेताओं के विचार थे कि स्टालिन एक बहुत ही दंभी और क्रूर इंसान है। अमेरिका सोवियत संघ को अपनी सुरक्षा के लिए एक चुनौती समझता था। इसी प्रकार सोवियत संघ के नेता अमेरिका पर आरोप लगाते थे कि वह मानव अधिकारों का सबसे बड़ा उल्लंघन करता है। दोनों महा शक्तियों के अंतर विरोध में यह दोनों मां शक्तियां एक दूसरे की छवि को मलिन करने के इरादे से एक दूसरे के खिलाफ अतिशयोक्ति पूर्ण प्रचार करते रहे,जिससे शीत युद्ध न केवल हुआ, बल्कि लंबे समय तक चला।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रसिद्ध जानकार रिचर्ड जे. बर्नेट के अनुसार - अमेरिका तथा सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध एवं प्रतिद्वंद्विता के निम्न प्रमुख कारण थे -
1. अविश्वास की विरासत।
2. एक दूसरे के विरुद्ध सैन्य संगठनों का निर्माण जैसे नाटो ( NATO ) सीटों ( SEATO ) वारसा र्आदि।
3. संयुक्त राष्ट्र की प्रभावहीनता।
4. मनोवैज्ञानिक प्रतिद्वंदिता ।
5. सोवियत संघ द्वारा सितंबर 1949 में आणविक विस्फोट।
6. साम्यवादी चीन का उदय, 1 अक्टूबर 1949।
प्रथम शीत युद्ध --
1950 व 1960 के दशक में शीत युद्ध उत्कर्ष पर था। मध्य पूर्व एशिया एवं अन्य स्थानों पर सोवियत संघ के विस्तारवादी इरादों को भापकर अमेरिका ने अपनी विदेश नीति का सैनीकरण कर दिया। अमेरिका वास्तव में मानसिक तौर पर सोवियत संघ के खतरे से इतना भयभीत हो गया था कि वह किसी भी कीमत या परिणाम की परवाह किए बिना सैन्य सुरक्षा गठबंधन का निर्माण करने में जुट गया। 1949 में अमेरिका ने भूमध्य सागर में छठे बेडे को विकसित किया। 1953 में नाटो का विस्तार करके ग्रीस और तुर्की जैसे देशों को इसमें शामिल किया। 1955 में बगदाद समझौता हुआ जिसमें इराक, ईरान, तुर्की और पाकिस्तान शामिल हुए। 1956 में स्वेज नहर के निर्माण का आकलन रखते हुए मार्च 1957 में आइजन हावर सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसके अंतर्गत अमेरिका मध्य पूर्वी एशिया में अपने सुरक्षा हितों को ध्यान में रखते हुए, सैन्य बल का इस्तेमाल कर सकता था।
1958 में अमेरिका ने अपने 129 सैनिकों को लेबनान में उतारा। इसके अतिरिक्त जॉर्डन, इराक, अल्जीरिया , सऊदी अरब, लीबिया व अदन में अपने सैनिक अड्डों पर निगरानी बढ़ा दी। निक्सन सिद्धांत 1969 के अंतर्गत अमेरिका ने मध्य एशिया की क्षेत्रीय ताकतों जैसे ईरान व इसराइल को भारी मात्रा में सैनिक सहायताएं प्रदान की।
मध्य पूर्व एशिया के देशों की सरकारों को अपने पक्ष में करने के लिए अमेरिका ने आर्थिक और सैन्य सहायता की बौछार कर दी। इसी तरह अरब इजरायल संघर्ष को लेकर दोनों महा शक्तियों के बीच शीत युद्ध तीव्र गति से जारी रहा। नवंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा फिलिस्तीन विभाजन के प्रस्ताव पर मास्को ने इसराइल को अचानक अपना समर्थन दिया जिससे कानूनी तौर पर इजरायल को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्थापित होने में मदद मिली। मैं 1948 में इसराइल को मान्यता देने वाली बड़ी शक्तियों में अमेरिका के अलावा सोवियत संघ दूसरा सबसे बड़ा देश था। मास्को इजरायल की स्थापना के फल स्वरुप उत्पन्न हुए अरब - पश्चिमी देशों के बीच की खाई से मिलने वाले लाभ को प्राप्त करना चाहता था। संयुक्त राष्ट्र संघ एवं अन्य कूटनीतिक मंचों पर सोवियत संघ ने अरबो का साथ दिया। 1956, 1967 एवं 1973 के इजरायल के साथ हुए युद्ध में सोवियत संघ ने मिश्र एवं सीरिया का पूरे जोर-शोर से समर्थन किया।
सोवियत संघ का महत्वपूर्ण एशिया के देशों में साम्यवादी सरकार स्थापित करने का कोई इरादा नहीं था। वह भली भांति इस बात को जानता था कि यहां की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों सर्वहारा वर्ग की क्रांति के लिए उपयुक्त नहीं है। आते सोवियत संघ मदपुर एशिया में अमेरिका के प्रभाव को सीमित करना चाहता था। मध्य पूर्व एशिया का भू - राजनीति एवं भू -सामरिक दृष्टि से अत्यधिक महत्व था, इसी कारण अमेरिका और उसके मित्र पश्चिमी देशों के एक छात्र प्रभाव को सोवियत संघ बर्दाश्त नहीं कर सकता था। यद्यपि सोवियत संघ तेल के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता लेकिन उसकी सोच थी कि अमेरिका को इस क्षेत्र के तेल भंडारों पर अपना अधिकार एवं नियंत्रण नहीं करने देना चाहिए। दूसरी ओर अमेरिका को भी यह आशंका थी कि सोवियत संघ कहीं इस क्षेत्र में अपना सामरिक नियंत्रण स्थापित ने कर ले। क्योंकि यदि ऐसा हो गया तो सोवियत संघ अमेरिका तथा उसके सहयोगी देशों की अर्थव्यवस्था और उद्योगों को छिन्न-भिन्न कर देंगे.
द्वितीय शीत युद्ध --
सोवियत संघ द्वारा दिसंबर 1979 में अफगानिस्तान पर किए गए सैनिक आक्रमण ने द्वितीय शीत युद्ध को जन्म दिया। अमेरिका ने सोवियत संघ की इस कार्रवाई को महत्वपूर्ण एशिया में उसके नापाक इरादों का प्रतीक समझा। सोवियत संघ की इस अजीबोगरीब सैनिक कार्रवाई से अफगानिस्तान जो की ने तो औपचारिक रूप से साम्यवादी खेमे का सदस्य था और ने ही वर्षा संधि का सदस्य था, वह चिंतित हो उठा। यह कार्रवाई उसे समय शुरू हुई थी जब दोनों मां शक्तियों के मध्य सैन्य संतुलन सोवियत संघ के पक्ष में नजर आ रहा था। सोवियत संघ की अंगोला इथोपिया एवं यमन में सेन उपस्थिति तथा अफगानिस्तान में उसके सेंड आक्रमण को अमेरिका एवं पश्चिमी देश एक साहसिक सैन्य सक्रियावाद के रूप में देख रहे थे। वह यह मुलांकन कर रहे थे कि सोवियत संघ भविष्य में कृपया किसी प्रकार तीसरी दुनिया एवं दक्षिणी पश्चिमी एशिया में अपने प्रभाव का विस्तार करेगा। अमेरिकी नीति के कुछ विश्लेषकों का यह मानना था कि सैन्य शक्ति संतुलन के संबंध में अमेरिका की यह स्पष्ट नीति के फल स्वरूप सोवियत संघ की "लूटपाट" व "हड़पने" की नीति और अधिक सक्रिय हो गई। अमेरिका की नजर में क्रेमलिन का वास्तविक उद्देश्य तेहरान कुवैत और रियाद तथा इस क्षेत्र के तेल इलाकों पर अपना नियंत्रण स्थापित करना था। इसके अतिरिक्त सोवियत संघ की दक्षिणी पश्चिमी एशिया में गहरी अभिरुचि कई दशकों से चली आ रही थी। वाशिंगटन की तुलना में मास्को का प्रभाव इस क्षेत्र में ज्यादा रहा है तथा सोवियत संघ ने इस क्षेत्र को विकास एवं सेंड सहायता भी उपलब्ध कराई थी जबकि इससे पूर्व अमेरिका ने अफगानिस्तान को अपने हितों के लिए महत्वपूर्ण नहीं समझा। अफगानिस्तान भौगोलिक दृष्टि से संसाधनों की दृष्टि से एवं राजनीतिक दृष्टि से पिछड़ रहा है आते अमेरिका ने इस और ध्यान नहीं दिया । इसके अतिरिक्त 1979 में पहलवी वंश के अंत के हायत्तुला खुमेनी की धार्मिक कट्टरता तथा इराक, ईरान, अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान में जातीय अल्पसंख्यकों में बढ़ते असंतोष आदि ऐसे कारण थे जो सोवियत संघ के प्रभाव में वृद्धि के लिए उपयुक्त थे।
अमेरिका ने पाकिस्तान को महत्व दिया-
s सोवियत संघ की अफगानिस्तान में सैन्य उपस्थिति से अमेरिका ने पाकिस्तान को अग्रिम पंक्ति के राज्य का दर्जा दिया, क्योंकि सामरिक दृष्टि से पाकिस्तान ही अमेरिका के हितों को साधने में सक्षम था। परंतु पाकिस्तान के सैन्य शासक जिया उल हक ने सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान में सैन्य उपस्थिति को एक वरदान के रूप में लिया। दिसंबर 1971 में पाकिस्तान के टुकड़े होने के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान को सैन्य एवं आर्थिक सहायता में कटौती कर दी थी एवं समय-समय पर सेंड प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए थे परंतु सोवियत संघ की अफगानिस्तान में की गई आक्रमण आत्मक कार्रवाई के फल स्वरुप पाकिस्तान अमेरिका की निगाह में सामरिक दृष्टि से पुणे महत्वपूर्ण बन गया। अमेरिका ने पाकिस्तान को विपुल मात्रा में सैन्य सहायताऔर हाईटेक हथियारों की खेत भेजना शुरू कर दिया। अमेरिका ने जमकर पाकिस्तान की आर्थिक और सैनिक सहायता की। पाकिस्तान ने अपने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखने का सुनहरा मौका ढूंढ लिया। इन घटनाओं से दक्षिण एशिया में भी शास्त्रों की होड़ शुरू हो गई। हालांकि अमेरिका की खुफिया एजेंसी को इस बात की पूरी जानकारी थी कि पाकिस्तान परमाणु विकसित करने के कार्यक्रम में संलग्न है परंतु सोवियत संघ की अफगानिस्तान में उपस्थित के कारण अमेरिका ने चुप्पी साध ली। यहां तक कि कार्टर और वीगन प्रशासन होने परमाणु एक प्रसार संबंधी अमेरिकी कानून का इस्तेमाल पाकिस्तान के खिलाफ नहीं किया दूसरी ओर भारत भी अपने सुरक्षा कर्म से सोवियत संघ की ओर झुकाव की नीति पर चला। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सोवियत संघ तथा अफगानिस्तान पर किए गए आक्रमण को लेकर निष्पक्ष एवं स्पष्ट नीति नहीं अपनी इससे भारत अमेरिकी संबंधों में बिगड़ा हुआ आया।
शीत युद्ध और भारत --
दूसरे शीत युद्ध के परिणाम का भारत में सोवियत संघ पर विशेष रूप से प्रभाव पड़ा। जहां तक भारत का प्रश्न है दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को अमेरिका द्वारा नवीनतम हथियारों जैसे - F -16 विमान की खेप बेजने से भारत की सुरक्षा चिंताएं बढ़ गई। अमेरिका सामरिक दृष्टि से भारत के खिलाफ पाकिस्तान को समकक्ष लाने में प्रयत्नशील था। दूसरी बात यह थी कि अमेरिका की पाकिस्तान के आणविक कार्यक्रम के प्रति उदासीनता ने ने केवल उसकी परमाणु अप्रसार संधियों की खुल्लम-खुल्ला अभीला की बल्कि इस नीति से अमेरिका ने एक नई आणविक शक्ति पाकिस्तान को उभारने का मौका दे दिया था। अमेरिका की इस दोहरेपन की नीति से दक्षिण एशिया में आणविक होड़ को बढ़ावा मिला। जिसके परिणाम स्वरुप यह क्षेत्र सुरक्षा एवं शांति की दृष्टि से स्थिर हो गया। तीसरा इस घटना का पक्षी यह रहा कि भारत की स्पष्ट वह ढुलमुल नीति के कारण अमेरिका में चीन दोनों के साथ पाकिस्तान अपने रिश्तों को प्रकार बनाने में सफल हुआ। पाकिस्तान जहां एक और कश्मीर मुद्दे पर अमेरिका का कूटनीतिक समर्थन एवं सैन्य सहायता प्राप्त करता रहा वहीं दूसरी ओर चीन की मदद से वह अपने परमाणु कार्यक्रम एवं मिसाइल कार्यक्रमों को भी आगे बढ़ाने में सफल हुआ।
शीत युद्ध के सोवियत संघ पर घातक प्रभाव --
जहां तक सोवियत संघ का प्रश्न है द्वितीय शीत युद्ध का सबसे घातक प्रभाव उसके लिए ही साबित हुआ। लगभग 10 वर्ष की अफगानिस्तान में सेंड उपस्थिति से सोवियत संघ की आर्थिक स्थिति पर भारी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इसके अलावा सोवियत संघ की सामरिक दृष्टि से मूर्खतापूर्ण सेन कार्रवाई से पाकिस्तान अमेरिका के इशारे पर आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देता रहा। इस क्षेत्र में महारत हासिल करने का परिणाम आज भी रूस और भारत भुगत रहे हैं। इन परिस्थितियों में सोवियत संघ के समक्ष अमेरिका के साथ अपने संबंधों को सुधारने तथा अफगानिस्तान से सेना को हटाने के लिए अप्रैल 1988 में जिनेवा समझौते के अलावा और कोई चारा नहीं था। गुरबचने जब 1985 में संवादी दल एवं अपने देश का नेतृत्व संभाला तो उन्हें भली भांति यह मालूम हो गया था कि सोवियत संघ अंदरूनी खोखलेपन का शिकार हो चुका है। इसीलिए गोर्बाचोव ने टकराव के स्थान पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग एवं शांति की अपील की। उन्होंने 1989 में सोवियत संघ की संसद ड्यूमा को संबोधित करते हुए कहा कि पूर्व में अपनी गली गलत नीतियों का खामियाजा सोवियत संघ के नागरिकों को भुगतना पड़ रहा है। देश की आर्थिक स्थिति बदतर होती जा रही है। लोगों को पर्याप्त भोजन व स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हो रही थी। प्रतिरक्षा पर बढ़ते खर्च ने देश के बजट को बड़े पैमाने पर घाटे में ला दिया। नौकरशाही की निष्क्रियता और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार से अर्थतंत्र चिन्ह भिन्न होता जा रहा था राष्ट्रपति गोर्बाचोव यह बताना चाहते थे कि उनके द्वारा राजनीतिक खुलीपन एवं आर्थिक पुनर संरचना की नीतियों की शुरुआत सोवियत संघ को संकट से उभरने की दिशा में सही कदम था। गोर्बाचोव ने अपने नए राजनीतिक चिंतन के अंतर्गत निरस्तीकरण स्वस्थ नियंत्रण विश्व शांति और अमेरिका के साथ संबंधों को सुधारने के लिए सक्रिय सहयोग की नीति को व्यावहारिक रूप देने के लिए शीघ्र कदम उठाए। दिसंबर 1987 में गोर्बाचोव एवं अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन ने एक संधि पर हस्ताक्षर किए जिसके अंतर्गत दोनों महा शक्तियों के मध्य लघु स्टर के परमाणु और सामरिक शास्त्र में 50% कटौती की गई जो ऐतिहासिक एवं साहसिक निर्णय था।
नवंबर 1989 में बर्लिन की दीवार जिसे 1961 में सोवियत संघ ने निर्मित करवाया था को ध्वस्त करने पर गौर बार चुने अमेरिका और जर्मनी को स्वीकृति प्रदान कर दी। इस दीवार को गिराने का रास्ता खुल गया तथा जर्मनी 1990 में पुनः एकीकृत हो गया। यह घटनाएं सोवियत संघ के विघटन का संकेत दे रही थी। इस विघटन प्रक्रिया में पूर्व राष्ट्रपति बोरिस येल्टीशन ने बच्चा कुछ काम पूरा कर दिया, जब अगस्त 1991 में गोर्बाचोव के खिलाफ विद्रोह कर उन्होंने अपने आप को सोवियत संघ का राष्ट्रपति घोषित कर दिया। गोर्बाचोव ने यह है रहस्य खोला था कि सोवियत संघ को विघटन से बचाया जा सकता था पर बोरिसिल स्टेशन अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा पर कुछ अंकुश रखने तभी ऐसा हो पाता। जो भी हो द्वितीय शीत युद्ध का एकल्पनीय परिणाम सोवियत संघ को भुगतना पड़ा उसके अंतिम पतन की कल्पना अमेरिका के दिग्गज नेताओं, सामरिक विशेषज्ञों, एवं विद्वानों को भी नहीं थी।
शीत युद्ध के जमाने की ऐतिहासिक तस्वीरें --
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फोटो -- सोवियत संघ की मशहूर स्क्वायर परेड जो क्रेमलिन- राष्ट्रपति भवन के सामने आयोजित होती थी।
फोटो - शीत युद्ध हथियारों की होड़ का दौर था।
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शीत युद्ध के प्रमुख सिद्धांत --
शीत युद्ध के बारे में तीन प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार हैं --
1. परम्परागत विचार।
प्रमुख विचारक - हर्बर्ट फिश ( herbart feis ) विलियम मक़लीन ( william mcneill ) अर्थार ऍम शेलेसिंगर ( schelesinger
2. संसोधन वादी विचार।
प्रमुख विचारक - विलियम एप्पलमेन ( william appleman ) गेब्रियल कोको
3. उत्तर संसोधन वादी विचार।
प्रमुख विचारक - जान लुईस गार्डिस, डेनियल यर्गीश
परंपरावादी विचारकों का प्रभाव 1960 के मध्य तक रहा। उसके बाद संशोधन वादियों की लहरी आई तत्पश्चात 1970 के दशक में उत्तर संशोधन वादियों का परचम लहराया। उपरोक्त विचारकों के विभिन्न मतों के पीछे अलग-अलग कारण हैं। परंपरा वीडियो की राय में शीत युद्ध के लिए सोवियत संघ उत्तरदाई था। संशोधन वादी इसके लिए अमेरिका को उत्तरदाई ठहराते हैं जबकि उत्तर संशोधन वादी इन दोनों देशों को दोषी मानते हैं। परंपरा वीडियो के अनुसार द्वितीय महायुद्ध के पश्चात अमेरिका की नीति passivity कि थी। उनका कहना है कि अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी विश्व स्तरीय संस्था की स्थापना में सक्रिय सहयोग दिया एवं ब्रिटेन तथा सोवियत संघ के बीच मनमुटाव की खाई को काटने में कूटनीतिक सेवाएं प्रदान की। परंपरावादी अपने पक्ष में तर्क देते हुए कहते हैं कि ट्रू मैन सिद्धांत एवं मार्शल योजना की आवश्यकता पूर्वी यूरोप में सोवियत विस्तारवाद के प्रतुत्तर में थी।
संशोधन वादी उपरोक्त तर्क से सहमत नहीं है। इनका तर्क यह था कि द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति से पूर्व भी अमेरिका ने सोवियत संघ एवं वामपंथी शक्तियों के प्रभाव को सीमित करने के प्रयास तेज कर दिए थे। इसके लिए अमेरिका ने कई तौर तरीकों को अपनाया था जिनमें परमाणु बम के निर्माण से लेकर आर्थिक सहायता का सहारा लिया गया. जहां तक सोवियत संघ की पूर्वी यूरोप के प्रति नितियों का प्रश्न है, संशोधन वादी उसे अमेरिकी आकांक्षाओं के प्रति उत्तर के रूप में देखे थे। उत्तर संशोधन वादी इस बात पर सहमत हैं कि अमेरिका ने अपने हितों में अभिवृद्धि के लिए अनेक साधनों को प्रयुक्त किया। परंतु उत्तर संशोधन वीडियो का मंतव्य है कि शीत युद्ध के पीछे विभिन्न कारकों का हाथ रहा है। केवल एक कारण को देखना शीत युद्ध की सही व्याख्या नहीं होगी। अतिरिक्त कर्म में जनमत कांग्रेसी संसद एवं दबाव समूहों की भूमिका भी प्रमुख है। उत्तर संशोधन वादी शीत युद्ध की व्याख्या में बहुल ( अधिक ) कारणों पर जोर देते हैं।
महाशक्तियों के मध्य देत्तान्त --
( शांति स्थापना के प्रयास )
1970 के दशक के प्रारंभ में वेतन नीति का प्रारंभ अमेरिका में सोवियत संघ के संदर्भ में हुआ। सामान्यतः देशात का अर्थ तनाव शेथिलिकरण की नीति का अनुसरण कर दोनों महा शक्तियों के बीच संबंधों में सुधार लाना था। राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने अपने 7 जून 1978 के भाषण में कहा था कि" डिस्टेंट का अर्थ दोनों महाशक्तियों के बीच तनाव को कम करना है।"
C. D. Blacker ने अपनी पुस्तक "अनइच्छुक योद्धा" में कहा कि" दोनों मां शक्तियों के मध्य हितों के संतुलन के फल स्वरुप देशात ने जन्म लिया वेतन का मुख्य आधार सहयोग, एवं विभिन्न मतभेदों का समायोजन है।" 1969 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिसर्च निक्सन एवं सोवियत संघ के राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेझनेव ने दोनों देशों के पारस्परिक संबंधों में तनाव में कमी लाने का एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया। इस निर्णय का मुख्य उद्देश्य परमाणु शस्त्रों से उत्पन्न आतंक एवं भय को संतुलित करना था।
फोटो - भारतीय नेताओं के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर।
कुछ विद्वानों का मानना है कि देत्तान्त के पीछे मुख्य कारण दोनों महा शक्तियों के बीच "परमाणु संतुलन"का होना था। उन्हीं के शब्दों में देत्तान्त शांति का जनक नहीं अपितु आणविक संतुलन ही शांति और देत्तान्त दोनों का जनक है।
देत्तान्त के कारण --
1. क्वेबा संकट ने दोनों महाशक्तियों के बीच प्रत्यक्ष संघर्ष को टालने की आवश्यकता को समझा।
2. सोवियत संघ ने केवल पूर्वी यूरोप में अपने प्रभाव क्षेत्र को बनाए रखने में कामयाब रहा, बल्कि उसे अमेरिका के समक्ष महाशक्ति का दर्जा भी पहली बार मिला। इस बात की पुष्टि दोनों देशों के बीच शिखर सम्मेलन का होना एवं साल्ट संधि एवं एंटी बैलिस्टिक मिसाइल संधि 1972 पर अमेरिका और सोवियत संघ द्वारा हस्ताक्षर करना।
3. दोनों महाशक्तियों ने एक दूसरे के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप में करने की नीति पर चलने का संकल्प लिया था कि उनके बीच मनमुटाव और टकराहट की स्थिति पैदा ना हो।
4. अमेरिका की वियतनाम युद्ध की नीति का बढ़ता घरेलू विरोध एवं घर अंतरराष्ट्रीय आलोचना ने अमेरिका को देत्तान्त नीति अपनाने की आवश्यकता को समझा।
5. प्रतिरक्षा पर बढ़ते खर्च पर अंकुश लगाना दोनों मां शक्तियों के लिए लाभदायक था।
6. सोवियत संघ की बढ़ती हुई सैन्य शक्ति अमेरिका के लिए चिंता का विषय बन गई सामने हथियारों के निर्माण क्षेत्र में सोवियत संघ अमेरिका से भी आगे जा रहा था।
7. डेटेंट की नीति दोनों देशों के आर्थिक खेतों का प्रतिनिधित्व करती थी।
8. 1960 के दशक के अंत में सोवियत संघ की पश्चिमी यूरोप के प्रति नीति भी देशात के लिए उत्तरदाई थी।
9. निक्सन का व्यक्तित्व एवं साहसिक निर्णय लेने की क्षमता के कारण निक्सन प्रशासन को चीन के साथ संपर्कों की शुरुआत करने के लिए श्रेय दिया जाता है।
देत्तान्त का नया दौर --
1985 मैं मान सकती हूं के बीच संबंधों में उसे समय गर्म हटाई जब राष्ट्रपति रीगन तथा गोर्बाचोव के बीच प्रथम शिखर वार्ता हुई। उसने सबको आश्चर्य में डाल दिया एकाएक संबंधों में यह सुधार बिना किसी स्पष्ट उद्देश्य या दिशा निर्धारण के हुआ गोर्बाचोव के नए चिंतन के अनुसार अंतरराष्ट्रीय संबंधों का आधार शांति एवं सहयोग होना चाहिए। अमेरिका को भी उसकी भू राजनीतिक आवश्यकताओं ने बाध्य कर दिया कि वह सोवियत संघ से दोस्ती के हाथ को स्वीकार करें। 1986 के रिकजाविक शिखर सम्मेलन में राष्ट्रपति रीगन और राष्ट्रपति गोर्बाचोव कि बातचीत में कोई सफलता नहीं मिली। विश्व के प्रमुख अखबारों ने इस शिखर सम्मेलन की विफलता को लेकर कई अटकल वाजियां लगाई। गोर्बाचोव ने अमेरिका द्वारा शुरू की किए गए "तारा युद्ध" कार्यक्रम ( मार्च 1983 में प्रारम्भ ) को बंद करने के प्रस्ताव को राष्ट्रपति रीगन द्वारा ठुकराए जाने के फल स्वरुप उपरोक्त शिखर सम्मेलन विफल रहा परंतु अमेरिका और सोवियत संघ के विदेश मंत्रियों की नियमित बैठकों के परिणाम स्वरुप दोनों देशों के बीच 1987 के मध्य लघु स्तर के परमाणु हथियारों में 50% कटौती करने संबंधी संधि पर हस्ताक्षर हुए। अमेरिका के नीति कारों को एहसास होने लगा कि दोनों महा शक्तियों के बीच एक दीर्घकालीन सहयोग जरूरी था। दूसरी ओर अमेरिकी नीति कारों ने यह भी सोचा कि यदि राष्ट्रपति कोरबा जो नए डिस्टेंट के लिए गंभीर है तो अमेरिका को इस स्थिति का लाभ उठाना चाहिए। विशेष रूप से मध्य पूर्व एशिया तथा पूर्वी यूरोप में सोवियत संघ के समर्थन के माध्यम से नए सुरक्षा और राजनीतिक उपायों को ढूंढा जा सकता था। वस्तुत: पारस्परिक सामरिक आवश्यकताओं की अनिवार्यता ने दोनों महा शक्तियों को देत्तान्त की नीति का अनुसरण करने के लिए बाध्य कर दिया।
उधर सोवियत संघ की गहराती घरेलू एवं आर्थिक समस्याओं के मध्ये - नज़र गोर्बाचोव ने परेस्त्रोका (perestroike) एवं ग्लाशनोस्त ( खुलेपन ) कि नीतियों को अंगीकार किया। इसी संदर्भ में सोवियत संघ की कूटनीति एवं शस्त्र नियंत्रण नीतियों को देखा जाना चाहिए। गोर्बाचोव ने 1989 में ग्रेट ब्रिटेन पश्चिमी जर्मनी, फ्रांrस व चीन की यात्राएं की। इन यात्राओं में गोर्बाचोव ने उन्हें यह आसान आश्वासन दिया कि क्रेमलिन अंतरराष्ट्रीय शांति सुरक्षा व स्थायित्व के प्रति कटिबंध है। गोर्बाचोव की चीन की यात्रा इस बात का प्रमाण है कि वह बीजिंग के साथ नए संबंधों की शुरुआत के लिए कितने इच्छुक थे। वे वर्षों पुरानी शत्रुता और पारस्परिक संधि का अंत करना चाहते थे और चीन के साथ मिल मिलाप की नीति के इच्छुक थे।
नये देत्तान्त को एक शुद्ध आधार प्रदान करने के लिए गोर्बाचोव ने दिसंबर 1988 को संयुक्त राष्ट्र संघ में दिए गए अपने भाषण के दौरान एक तरफ घोषणा की कि सोवियत संघ अपनी सैन्य शक्ति में कटौती करेगा। जिसके अंतर्गत पूर्वी यूरोप में तैनाद 500 परमाणु शस्त्रों को हटाएगा तथा मंगोलिया में अग्रिम पंक्ति में स्थित हजारों सोवियत सैनिकों को वहां से हटाएगा। अप्रैल 1988 में जिनेवा में हुए सम्मेलन में पांच समझौता पर क्रेमलिन नेतृत्व ने अपनी सहमति प्रदान की जिसमें सोवियत संघ की सेनाओ की वापसी भी शामिल थी। फरवरी 1989 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान से अपनी सेनन की वापसी की शुरुआत की। इस कार्रवाई में अमेरिका ने बड़ी राहत की सांस ली क्योंकि दिसंबर 1979 से अमेरिका सोवियत संघ की अफगानिस्तान में सैनिक उपस्थिति को लेकर चिंतित था तथा उसे निपटाने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान विद्रोहियों को विपुल मात्रा में अस्त्र-शस्त्र एवं सैनिक सहायता तथा आर्थिक मदद करनी पड़ी। सामरिक व भू राजनीतिक कारणों से अमेरिका चिंतित था कि कहीं सोवियत संघ मध्य पूर्व एशिया में तेल के कुआं पर नियंत्रण कर खड़ी मार्ग से गुजरने वाले विश्व व्यापार व्यवस्थाओं को बाधित न कर दे। इसके अलावा हिंद महासागर में अमेरिकी नौसेना शक्ति को गंभीर चुनौती देने में भी सोवियत संघ और अधिक सक्षम होगा। परंतु गोर्बाचोव द्वारा अफगानिस्तान से रूसी सेना को हटाने से अमेरिका की सामरिक व आर्थिक चिंताएं कम हुई।
जहां तक संयुक्त राष्ट्र का प्रश्न है गोर्बाचोव ने अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में संयुक्त राष्ट्र संघ के महत्व को दर्शाया। 17 सितंबर 1987 के एक अखबार में गोर्बाचोव का एक लेख - "सुरक्षित संसार की वास्तविकताएं एवं गारंटी" में गोर्बाचोव ने संयुक्त राष्ट्र की भूमिका में अभिवृद्धि करने एवं उसके महासचिव की भूमिका को सुदृढ़ करने की आवश्यकता पर बल दिया। इसके अतिरिक्त सोवियत संघ ने संयुक्त राष्ट्र को अपनी बकाया धनराशि का भी भुगतान किया। टीकाकरण की नजरों में संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासों के फल स्वरुप ही अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेना की वापसी संभव हो पाई थी। सोवियत संघ की इस बदलती मनोवृति के पीछे एक कारण यह भी रहा कि गोर्बाचोव अपने देश कि छवि-शांति उन्मुख के रूप में पेश करना चाहते थे। गोर्बाचोव ने संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों को समर्थन देना अपने देश के राष्ट्रीय हितों के अनुकूल समझा।
फोटो- प्रेरणा डायरी ( www.prernadayari.com ) के लेखक केदार लाल अपने दोनों बच्चों के साथ।
स्थान - टुड़ावाली-पारला, 321610 जिला - गंगापुर स्टेट - राजस्थान, इंडिया।
उनका मानना था कि इससे पश्चिमी देशों के साथ संबंधों का मास्को को आर्थिक व कूटनीतिक लाभ मिलेगा। अफगानिस्तान में सोवियत हस्छेप से 1980 के दशक में शुरू हुआ द्वितीय शीत युद्ध और उसके पश्चात देत्तान्त स्थापना में गोर्बाचोव की अहम भूमिका रही। गोर्बाचोव द्वारा जिनेवा समझौता ( अप्रेल 1988 ) पर हस्ताक्षर एवं निशस्त्रीकरण तथा संयुक्त राष्ट्र की भूमिका आदि अंतरराष्ट्रीय मुद्दों से संबंधित पहल ने दोनों महाशक्तियों के बीच तनाव को सिथिल किया। और अंततः दिसंबर 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ ही शीत युद्ध के अध्याय का अंत हो गया।
महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर
Question 1. शीत युद्ध ( cold war ) की शुरुआत कब हुई ?
उत्तर - शीत युद्ध की शुरुआत 1947 में ट्रूमैन सिद्धांत की घोषणा के साथ शुरू हुई। यह एक वैचारिक संघर्ष था जो तत्कालीन महाशक्ति - संयुक्त राज्य अमेरिका एवं सोवियत रूस, दोनो खेमो के मध्य हुआ। 1991 में सोवियत रूस के 15 स्वतंत्र देशों में विभाजन होने के बाद शीत युद्ध के अध्याय का समापन हो गया।
Question 2. शीत युद्ध क्या था और इसे शीत युद्ध के नाम से क्यों पुकारा जाता है ?
उत्तर -- सरल शब्दों में शीत युद्ध एक राजनीतिक आर्थिक और वैचारिक युद्ध था जो द्वितीय विश्व युद्ध के कुछ वर्षों बाद शुरू हुआ था और 1991 तक चला। कोल्ड वॉर के दो मुख्य नायक संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस थे। इन दो महाशक्तियों के साथ पूरा विश्व दो खेमो में बांटा हुआ था।
अक्सर युद्ध उसे कहा जाता है जिसमें खुली सैन्य लड़ाई होती है लेकिन शीत युद्ध खुला सैन्य संघर्ष न होकर विचारधाराओं की लड़ाई थी। हालांकि कई बार टकराव चरम पर पहुंच गया और हथियारों की ओर शुरू हो गई परंतु शीत युद्ध शांतिपूर्ण रहा और दो विश्व युद्धों जैसा नहीं था। इसी विशेषता के कारण इसे शीत युद्ध अर्थात कोल्ड वॉर के नाम से पुकारा गया।
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