देश में महिला सुरक्षा के खिलाफ सभी संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन किया जा रहा है, लेकिन चिंता की बात यह है कि देशों में महिला सुरक्षा के खिलाफ अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (मैदानबी) की नवीनतम रिपोर्ट में सामने आया है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध का ग्राफ बढ़ रहा है। यह स्पष्ट है कि इन अपराधों को रोकने के लिए बनाए गए कानून नाकाफी साबित हुए हैं।
स्थिति यह है कि 2022 में महिलाओं के खिलाफ अपराध को लेकर पूरे देश में हर घंटे लगभग 51 रिकॉर्ड दर्ज किए गए। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में 50 प्रतिशत मामले दर्ज हुए।
ऐसा कहा जा सकता है कि पांच राज्यों में महिलाओं के खिलाफ अपराध की स्थिति अधिक गंभीर हो गई है। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर राज्य सचिवालय की तरफ से खूब दावे किए जा रहे हैं। यहां तक कि पांच राज्यों के हाल ही में हुए चुनावों में भी यह विषय प्रमुखता से छाया हुआ है। सबसे बड़ी चुन्नौती इस बात कि है कि इस डर के माहौल ने महिलाओ को तनाव ,चिंता, भय, कुण्ढा, और हीन भावना जैसे विकारों कि और धकेल दिया है। आज भी महिलाएं दहसत में जी रही है। सरीरिक् और मानसिक दोनों प्रकार की पीड़ा एक इस्त्रि को सहन करनी पड़ रही है। इसी कारण अधिकतर महिलाएं डिप्रेशन का शिकार हो रही है। हम दिन रात ये सब देख रहे हैं।
पुरषों कि तुलना में 60 फिसदी कम है भारत में महिलाओं कि आय --
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत ने माध्यमिक शिक्षा में नामांकन के मामले में सुधार किया है। वहीं राजनीतिक सशक्तीकरण के मामले में भारत का विश्व स्तर पर 65वा स्थान रहा है। हालांकि लैंगिक समानता में भारत की वैश्विक रैंकिंग में दो अंकों की गिरावट आई है 146 देश में भारत की रैंकिंग 129 है जबकि पिछले साल 127 थी। रिपोर्ट में भारत उन देशों में शामिल है जहां आर्थिक लैंगिक समानता का स्तर सबसे कम है आर्थिक समानता के पैमाने पर भारत को 0.398 अंक दिए गए हैं। यानी भारत में महिलाओं का योगदान पुरुषों के ₹100 की तुलना में 39.8 रुपए ही है। भारत में पुरुषों को जिस काम के लिए ₹100 दिए जाते हैं इस काम के लिए महिलाओं को ₹52 ही दिए जाते हैं इतना ही नहीं इस पैमाने पर भारत का स्थान दुनिया में सबसे निचले पांच देशों में है। भारत से नीचे सिर्फ चार देश हैं जिनमें पाकिस्तान ईरान सूडान और बांग्लादेश है।
बढ़ता तनाव :---
कठोर जीवन, दबाव, अत्यधिक जिमेदारी,तनाव से लोग कई प्रकार के मानसिक विकारों से ग्रस्त हो रहे हैं। इसी कारण लोगों में तनाव और डिप्रेशन बढ़ रहा है। महिलाओ में ये समस्या तेजी से बढ़ी है। समस्या और अधिक बढ़ती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूडब्ल्यू) की 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं में पुरुषों की तुलना में अधिक मात्रा में एंजाइटी डिसऑर्डर देखा जा रहा है। जिससे पैनिक अटैक की सम्भावना भी बढ़ रही है। मनोरोग संबंधी विकार एक ऐसी मानसिक समस्या है, जिसमें व्यक्ति के मन में नकारात्मक विचार आते हैं, नींद नहीं आती, चिड़चिड़ापन - है, और गुस्से कि प्रवृति बढ़ जाती है। पीसीओडी, पीटीएसडी, स्ट्रेस डिसऑर्डर जैसी बिमारियां महिलाओं में बढ़ रही है। इस के कारण विकलांगता की समस्या भी होने लगती है। एंजाइटी डिसऑर्डर की समस्या सबसे ज्यादा देखी जा रही है।
समतामूलक समाज का आधार है महिला --
भारत में समता मूलक समाज का आधार महिला है। महिला सशक्तिकरण के मूल में आर्थिक समानता है। महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलना बेहद जरूरी है. लेकिन सामंतवादी सोच ने महिला को एक ऐसी श्रेणी में डाल दिया है कि वह घर की चार दिवारी में कैद होकर रह गई है। औद्योगीकरण की शुरुआत और समाज में आए नए बदलावों के बाद स्त्री को शिक्षा और रोजगार के अवसर तो प्राप्त हुए लेकिन समाज में उसे वह सामान्य नहीं मिल पाई जिसकी वह हकदार है। आदि आबादी होने के बावजूद भी उसे पुरुषों के मुकाबले में कम नौकरी और कम वेतन मंजूर हुआ।
हाशिये पर धकेल दी जाती है महिलाएं --
अच्छी श्रमिक और कार्यकर्ता होने के बावजूद भी एक महिला छटनी का शिकार होती है। हर कार्य में तुलना होने पर उसे ही कमतर आंका जाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि घर परिवार से लेकर कार्यक्षेत्र में बहुत सी जगह पर उन्हें विकल्प के रूप में देखा जाता है। उदाहरण के तौर पर कई कार्यालय में देखा गया है कि जब जरूरत होती है तो महिला को कार्य बल और मुख्य धारा में शामिल कर लिया जाता है और काम पूरा होने पर उन्हें पीछे कर दिया जाता है. इतना ही नहीं एक महिला कितनी भी पढ़ी-लिखी क्यों ना हो जब जब और नौकरी की बात आती है तो उसका हक पुरुषों के मुकाबले कम ही आंका जाता है. इस सच्चाई से हम सब वाकिफ हैं अपनी आंखों से हम यह सब होता हुए देखते हैं, और जानते हैं। यानी हम यह कह सकते हैं कि क पैलेस के साथ-साथ परिवार और समाज में भी उसे निचले पायदान पर धकेल दिया जाता है। अगर हम परिवार की बात करें तो एक स्त्री पर शीघ्र विवाह और परिवार बढ़ाने का दबाव होता हैं। इससे उसकी नौकरी में रुचि और ऊर्जा दोनों काम हो जाती हैं। स्वास्थ संबंधी समस्याएं कुपोषण अवसाद प्रजनन संबंधी परेशानियां उसके भाई व्यावसायिक जीवन में बढ़ाएं उत्पन्न करती हैं। महिलाओं पर अपने परिवार और बच्चों की जिम्मेदारिओ को प्राथमिकता देने का दबाव बना रहता है।
बढ़ते महिला अपराधों ने स्त्री को बनाया मानोगी --
समाज में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है जिन पर लगाम की कोई संभावना नजर नहीं आ रही। महिला का घर से बाहर निकाल कर स्वतंत्र रूप से कार्य करना और अपना व्यवसाय तथा पढ़ाई करना दुष्कर कार्य हो गया है। इसके चलते अनेक महिलाएं मानसिक रोगों का शिकार हो रही हैँ।
प्राकृतिक तरीकों से सुधार रही स्वास्थ्य ---
प्रतापनगर, जयपुर निवासी एक महिला ने बताया कि परिवार कलह, तनाव के कारण वे मनोरोग की शिकार हो गई। इससे चिड़चिड़ापन, थकान और सिर-दर्द की समस्या होने लगी। अब प्राकृतिक उपचार, योग से स्वास्थ्य में सुधार मिल रहा है।
नींद नहीं आने की . हुई समस्या ----
सिरसी रोड, जयपुर कि निवासी महिला ने बताया कि असुरक्षित महसूस करने के कारण उन्हें एंजाइटी डिसऑर्डर हो गया। बढ़ती समस्या के कारण नींद नहीं आने की बीमारी हो जाती है जिससे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अब बिहेवियर थेरेपी और दवा ले रही है।
महिला अपराध में खंडित ---
कहा गया है कि देश में महिलाओं के खिलाफ किसी भी तरह का कोई प्रतिबंध नहीं लग रहा है। महिला सुरक्षा को लेकर स्थिति इतनी खराब है कि महिलाएं दिन के उजाले में भी अपनी असुरक्षित महसूस करती हैं, रात में अकेले बाहर जाने के बारे में ज्यादातर महिलाएं सोचती भी नहीं हैं। इस माहौल ने महिलाओं की रुचि के जीवन को प्रभावित किया है। असल में तेजी से पुलिस कार्रवाई नहीं हो रही है और शीघ्रता से दोषियों को सजा नहीं मिल रही है, इससे महिलाओं में सुरक्षा की भावना और अधिक बढ़ गई है।
आधी आबादी.. लेकिन सत्ता और संगठन में अल्प भागीदारी -
सांसद और विधानसभा में महिलाओं को 33% आरक्षण देने वाला नारी शक्ति बंधन अधिनियम पारित होने पर उम्मीद बनी थी कि राजनीतिक दल 33 फ़ीसदी नहीं तो कम से कम महिलाओं को सम्मानजनक अनुपात में टिकट देंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। हालांकि इस बार भी महिलाएं चुनाव मैदान में उतरी हैं, लेकिन इनमें इनमें ज्यादातर वे महिलाएं हैं जो या तो राजनीतिक परिवारों से आती हैं या फिर कभी न कभी लोकसभा पहुंच चुकी है।.नए चेहरों के रूप में टिकट हासिल करने वाले भी इनमें शामिल हैं। लोगों में यह भी उत्सुकता बनी है कि 4 जून को आने वाले चुनाव परिणाम के बाद कितनी महिलाएं लोकसभा की शोभा बढ़ाएंगे और कितनी मंत्री बन पाएंगगी।
देखा चाहे तो भारत और अधिकांश राज्यों में महिलाओं की सत्ता और संगठन में दोनों में भागीदारी अत्यंत न्यून है। वैसे तो अधिकतर राजनितिक दल और सुधारक महिला सशक्तिकरण की बातें करते हैं, लेकिन जब महिलाओं को सशक्त बनाने का, चुनाव में टिकट देने का, रोजगारों में मौका देने का, तथा हक और अधिकार देने की बात आती है तो सब कन्नी काटने लगते हैं। हर बार इस आदि आबादी को मुश्किल से 10 या 15% टिकट ही मिल पाते हैं। इस बार भी टिकट हासिल करने वाली ज्यादातर महिलाएं या तो राजनीतिक विरासत वाली है।
जरुरी है महिला सुरक्षा --
10 दिसंबर 2023 फोटो - "प्रेरणा डायरी" ब्लॉग के चीफ एडिटर केदार लाल अपनी पत्नी के साथ।
स्थान - गाँव टुढ़ावली, टोड़ाभीम- 321610
यदि कुछ महिलाएं राजनीतिक विरासत वाली नहीं भी हैं, तुमको कोई सेलिब्रिटीज हस्ती हैं। एक आम कार्यकर्ता को प्रत्याशी बनाया हो इस बात के इक्के - दुक्के उदाहरण ही मिलेंगे। बेशक संसद द्वारा पारित विधेयक में 33% महिला आरक्षण लागू करने की तारीख तय नहीं, लेकिन लोगों का सवाल यही है कि उसके बाद हो रहे पहले लोकसभा चुनाव में इस दिशा में ईमानदारी से पहल तो देखनी ही चाहिए हालांकि विधेयक पारित होने के बाद पिछले साल के अंत में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में भारी अंतर नजर आया, लेकिन उम्मीद की जा रही थी कि जिस संसद ने महिला आरक्षण पर मोहर लगे उसके एक सदन लोकसभा के चुनाव में तो टिकट वितरण में राजनीतिक दालों में कुछ गंभीरता दिखानी चाहिए थी।
अब जरा और आंकड़ों पर नजर डालते हैं तो पहले दो चरणों के मतदान में महिला उम्मीदवारों का प्रतिशत मात्र आठ रहा तीसरे चरण में यह प्रतिशत 9 तक पहुंचा और चौथे तक चरण में 10 तक पांचवें चरण में यह 12% तक पहुंच पाया। आगे के चरणों में भी कमोबेश ऐसी ही रफ्तार रही
कब पूरा होगा 33 परसेंट आरक्षण का वादा --
भारत की आधी आबादी लंबे समय से अपने 33% के आरक्षण के हक का इंतजार कर रही है। हमारे राजनीतिक दल ईमानदारी का कितना ध्यान रखते हैं इसका उदाहरण है...वोट बैंक का जिक्र करते वक्त महिलाएं वोट बैंक की राजनीति में राजनीतिक दलों के खाते में सबसे ऊपर होती हैं, लेकिन टिकट देने में यह उदारता गायब हो जाती है। सत्ता की बात तो बहुत बड़ी है, अन्य हिस्सों में भी अग्रिम स्थान नहीं दिया जाता। जब सट्टा की बात आती है तो राजनीतिक दल एकदम से महिलाओं को भूल जाते हैं। वोट लेते वक्त जो महिलाएं सबसे ऊपर थी वह सत्ता में भाग देवी देते वक्त सबसे पीछे हो जाते हैं। राजनीतिक दल सत्ता तो दूर की बात है संगठन में भी अग्रिम पदों पर महिलाओं को लाने से कतराते हैं। पूरे देश में उड़ीसा एक अलग उदाहरण है। उड़ीसा में सट्टा रोड बीजू जनता दल देश में एकमात्र ऐसा दल है जो महिलाओं को 33% टिकट देने की वचनबद्धता को पूरा कर रहा है।
राजनीतिक विरासत वली और सेलिब्रिटीज महिलाओं को ही टिकट आम कार्यकर्ता पहुंचे से दूर..
अब इसी घटना का हम दूसरा पहलू देखते हैं। जैसा कि आप फार्म जानते हैं कि नाम मात्र की महिलाओं को टिकट और सट्टा तथा संगठन में भागीदारी प्राप्त होती है। अब सवाल यह है कि जिन बहुत कम महिलाओं को टिकट और सट्टा तथा संगठन में भागीदारी मिलती है उनका बैकग्राउंड क्या है...? इस सवाल का जवाब ढूंढते हैं तो पता चलता है कि अधिकतर महिलाएं वह हैं जो या तो पहले से ही किसी राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखती है, राजनीति जिनके विरासत में है, या फिर अधिकतर महिलाएं राज परिवारों से ताल्लुक रखती हैं, या फिर कोई बहुत बड़ी हस्ती या सेलिब्रिटीज हैं। यानी नीचे से उठकर आए और पार्टी को ऊपर उठाने वाले आम परिश्रमी कार्य करता का प्रतिशत तो लगभग शून्यशा ही है। इसी लोकसभा चुनाव में टिकट पाने वाली महिलाओं पर यदि गौर करें तो मथुरा से तीसरी बार चुनाव लड़ रही है हेमा मालिनी बॉलीवुड की ड्रीम गर्ल रही है। हिमाचल प्रदेश के फेमस स्थान मंडी से जो पहली बार चुनाव लड़ने वाली कंगना रनौत की पहचान भी फिल्मों की वजह से ही है। वह मशहूर फिल्म अभिनेत्री है और ग्लैमर की दुनिया में एक सेलिब्रिटीज है। प्रियंका गांधी बड़े राजनीतिक विरासत वाले परिवार से हैं। नई दिल्ली से बांसुरी स्वराज, उत्तर प्रदेश की राजनीति में महिला राजनीति में वर्चस्व रखने वाली डिंपल यादव उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा के सुप्रीमो अखिलेश यादव की पत्नी है, बिहार में निशा भारती का बड़ा नाम है वह भी पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव की बेटी है। पंजाब की हर समेत कौर बादल एक राजनीतिक विरासत वाली पृष्ठभूमि से हैं। राजस्थान में महिला राजनीति में वसुंधरा राजे का काफी नाम रहा है, यह राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली तो है ही साथी यह राज परिवार से ताल्लुक रखती हैं। हरियाणा के अंबाला में बंधु कटारिया का टिकट भी राजनीतिक विरासत कि के कारण मिला है। राजस्थान की राजनीति में प्रमुखता से सामने आ रहा एक नया चेहरा और राजस्थान की उपमुख्यमंत्री दिया कुमारी राज परिवार से ताल्लुक रखते हैं और राजकुमारी रही है। उत्तरी भारत के अधिकतर राज्यों में ऐसा ही है। अगर महिलाओं को लेकर बात करें तो कम ऑफिस यही स्थिति दक्षिण भारत के राज्यों की है। वहां राजनीति में पहुंच रखने वाली अधिकतर महिलाएं राजनीतिक परिवारों से हैं या कोई फिल्म स्टार तथा बड़ी सेलिब्रिटीज है। जब टिकट देने की बारी आती है तो सभी राजनीतिक दल अपनी मान्यताओं को तक में रखकर टिकट देने के लिए केवल अपने नेताओं के परिवारों में ही देखते हैं। उनके बाहर आम कर्मठ और सच्चे कार्यकर्ताओं तक उनकी नजर जाती ही नहीं है।
युवाओं को आगे लाने का सवाल हो या फिर महिलाओं को राजनीतिक दल अपने नेताओं के परिवारों के बाहरदेखते ही नहीं है। युवा और महिलाओं से किए जाने है वाले अधिकतर वादे केवल चुनाव में
वोट तक सीमित होते हैं इसके बाद उन्हें भुला दिया जाता है।
अच्छा इस मामले में सभी दलों की हालत एक जैसी है। कोई भी राजनीतिक दल अपवाद नहीं है।
सत्ता और संगठन में महिलाओं की भागीदारी पढ़नी चाहिए। महिला सुरक्षा और उनमें आत्मविश्वास जगाने के लिए ऐसा करना आवश्यक है।
कार्य स्थलों पर बढ़ाना होगा महिलाओं का भरोसा-
कामकाजी महिलाओं की कार्यस्थल पर सुरक्षा हमेशा चिंता का विषय रही है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि यौन अपराध ही नहीं बल्कि कार्यस्थल पर यौन हिंसा का भय भी महिलाओं को उनके क्षेत्र में काम करने में आड़े आता है। सुप्रीम कोर्ट ने कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा में कोटा ही भारत ने पर सख्त रवैया अपनाते हुए अब केंद्र और राज्य सरकारों को यह आदेश दिया है कि वह महिलाओं की कार्य स्थल पर यौन सुरक्षा के लिए बने हुए कानूनी प्रावधानों का शक्ति से पालन सुनिश्चित करें। महिलाओं की सुरक्षा के लिए जिला समिति व बॉक्स पोर्टल बनाने के निर्देश देकर सर्वोच्च अदालत ने एक तरह से यह संकेत भी दिया है कि कार्य स्थलों पर महिलाओं की सुरक्षा निर्धारित करने के लिए जिम्मेदारों का मौजूदा लापरवाही भरा हुआ है।
चिंता की बात यह है कि प्रीवेंशन आफ सेक्सुअल हैरेसमेंट (पोश ) कानून लागू होने के 10 वर्ष बीत जाने के बावजूद कार्य स्थलों पर ऐसा माहौल बनाने के लिए अदालतों को समय-समय पर दखल करना पड़ रहा है। महिलाएं कार्य स्थल पर खुद को सुरक्षित, सम्मानित, भेदभाव रहित, और शारीरिक नुकसान से मुक्त महसूस नहीं कर रही है। पिछले 10 सालों में जो बदलाव आया है उसमें अब बड़ी तादाद में महिलाएं चिकित्सा में शिक्षा क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आईटी टेलीकॉम और दूसरे कई क्षेत्रों की कंपनियों में काम कर रही है। इनका दिल शाम में रात की पारी में काम करना भी आम बात है। शीश अदालत ने पोस्ट कानून को प्रभावित तरीके से लागू करने के लिए समय सीमा 25 मार्च से करते हुए सरकारों से अनुपालना रिपोर्ट भी मांगी है। सरकारी गैर सरकारी वे सार्वजनिक क्षेत्र के ज्यादातर उपक्रमों में यौन उत्पीड़न की सुनवाई के लिए आंतरिक शिकायत समितियां बनी जरूर है लेकिन सिर्फ कागजों में। सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कहा है कि कानून की पालना करने की व्यवस्था का कड़ाई से पालन नहीं किया जाता है तो संबंधित अधिकारी सकारात्मक रुख नहीं अपनाते हैं तो पोश कानून कभी सफल नहीं होगा। कानूनी प्रावधानों को लागू करने की जिम्मेदारी संबंधित संस्थाओं की जरूर है, पर सबसे ज्यादा जरूरत निगरानी की है। अन्यथा यह पोर्टल औपचारिक बनकर रह जाएगा।
आम हम बात यह है की नई केवल कार्य स्थल पर सुरक्षित वातावरण बल्कि महिलाओं के लिए अलग सुरक्षित हुए स्वच्छ शौचालय और सुरक्षित परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने की दिशा में भी व्यापक काम करके ही "आदि आबादी" को भरोसा दिलाया जा सकता है।
महिलाओं को स्वयं लड़नी होगी अपने हक की लड़ाई --
एक महिला के खाते में श्रम तो खूब आया पर शक्ति नहीं आई। निर्णय लेने में संगठन और सत्ता के गलियारों में उसकी उपस्थिति जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं है। इसी के मद्दे नजर महिलाओं को आरक्षण की आवश्यकता महसूस हुई. यह बात हम सबको समझनी होगी कि आदि आबादी को हास्य पर ढकाल कर समाज का विकास नहीं किया जा सकता। महिलाओं को साथ लेकर चलना पड़ेगा, उन्हें पूरे अधिकार और शक्ति तथा आजादी देनी होगी। इसके साथ ही महिलाओं को स्वयं भी अपनी शक्ति ऊर्जा और समर्थ को पहचानना होगा। अपने अधिकारों को लेकर सजक बनना पड़ेगा। जब तक महिलाओं के पास अपने हकों और अधिकारों की पूरी जानकारी नहीं होगी तब तक वह उन्हें मांग भी नहीं सकेंगी। कामकाज में लैंगिक विभाजन के खिलाफ उन्हें आवाज उठानी होगी। रूढ़िवादी सोच को खारिज करना होगा। महिलाओं को जागरुक होकर हर मोर्चे पर आवाज उठाने की जरूरत है। समान वेतन को लेकर जो कानून बने हुए हैं उन्हें जमीनी स्तर पर लागू करवाए जाने के लिए उन्हें दबाव डालना होगा।
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